भारत में रुपये की गिरावट
स्टॉक मार्केट और बड़ी USD देनदारी वाली कंपनियों पर प्रभाव
भारत का रुपया गंभीर चुनौती का सामना कर रहा है, और अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इसका प्रभाव भारतीय स्टॉक मार्केट और उन कंपनियों पर गहरा होगा जिनकी अमेरिकी डॉलर में भारी देनदारियां हैं। पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ. अरविंद सुब्रमण्यम, जोश फेलमैन (भारत में पूर्व IMF प्रतिनिधि), और अभिषेक आनंद (Insignia Policy Research के संस्थापक) ने इस विषय पर अपने विचार साझा किए हैं। यहाँ उनके विश्लेषण का विस्तृत विवरण प्रस्तुत है
RBI की भूमिका और वर्तमान रुपये की स्थिति
1. नए गवर्नर को मिला चुनौतीपूर्ण कार्यकाल
RBI के नए गवर्नर संजय मल्होत्रा को इस समस्या का “शिकार” बताया जा रहा है, न कि “अपराधी।” उन्हें ऐसी स्थिति सौंपी गई है जिसमें विकल्प सीमित हैं।
2. रुपये की गिरावट अवश्यंभावी
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि रुपये की गिरावट को टाला नहीं जा सकता। सवाल केवल इतना है कि यह गिरावट कितनी तेज और कितनी बड़ी होगी।
3. रुपया ओवर-वैल्यूड है
RBI के आंतरिक अनुमान के अनुसार, वर्तमान में रुपया अपनी वास्तविक कीमत से अधिक मजबूत है। इसे कम करना आवश्यक है, विशेष रूप से यदि अमेरिका भारत पर टैरिफ लगाए।
4. RBI के सामने केवल दो विकल्प
विकल्प 1 रुपये की धीरे-धीरे गिरावट होने देना।
विकल्प 2 रुपये की तेज और बड़ी गिरावट को स्वीकार करना।
गिरावट के दोनों विकल्पों के प्रभाव
1. धीरे-धीरे गिरावट
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स्पेक्युलेटर्स इसका फायदा उठाएंगे।
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मुद्रा बाजार में अस्थिरता बढ़ेगी और रुपये की कीमत जरूरत से अधिक गिर सकती है।
2. तेज और बड़ी गिरावट
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भारतीय अर्थव्यवस्था और स्टॉक मार्केट को गहरा धक्का लग सकता है।
बड़ी कंपनियों पर रुपये की गिरावट का प्रभाव
1. भारतीय कंपनियों का विदेशी कर्ज बढ़ा
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FY2023 में $26.6 बिलियन से FY2024 में यह $49.2 बिलियन तक बढ़ गया।
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उदाहरण के लिए, दो सप्ताह पहले रिलायंस ने $3 बिलियन का नया विदेशी कर्ज उठाया।
2. समस्या 1 डॉलर कर्ज की लागत बढ़ेगी
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रुपया कमजोर होने से डॉलर कर्ज और ब्याज चुकाना महंगा हो जाएगा।
3. समस्या 2 FII के निवेश पर प्रभाव
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विदेशी संस्थागत निवेशक (FIIs) की होल्डिंग्स का मूल्य डॉलर में घटेगा।
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इससे FIIs भारतीय बाजार से बड़ी मात्रा में पैसा निकाल सकते हैं।
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स्टॉक मार्केट में अस्थिरता बढ़ेगी।
इस स्थिति तक कैसे पहुंचे?
1. 2022 में RBI का नीति परिवर्तन
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RBI ने फ्लेक्सिबल एक्सचेंज रेट नीति को छोड़ दिया।
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रुपये की कीमत को कृत्रिम रूप से मजबूत बनाए रखने के लिए हस्तक्षेप किया।
2. इस नीति परिवर्तन का परिणाम
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भारत की निर्यात प्रतिस्पर्धा कमजोर हुई।
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विदेशी मुद्रा भंडार में तेजी से कमी आई।
3. क्यों बदली गई नीति?
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भारतीय कंपनियों को सस्ता विदेशी कर्ज उपलब्ध कराना।
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मजबूत रुपया कंपनियों के लिए डॉलर सस्ता बनाता है।
4. हकीकत में क्या हुआ?
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कंपनियों ने सस्ते विदेशी कर्ज का उपयोग महंगे घरेलू कर्ज को चुकाने में किया।
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निवेश और इंफ्रास्ट्रक्चर विकास की उम्मीदें पूरी नहीं हुईं।
अब क्या हो सकता है?
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रुपये की और गिरावट होगी।
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कंपनियों के लिए विदेशी कर्ज का भुगतान महंगा हो जाएगा।
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स्टॉक मार्केट में अस्थिरता बढ़ सकती है।
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FIIs का भारतीय बाजार से बड़ा निकास संभव है।
निष्कर्ष
यह स्थिति “शॉर्ट-टर्म नीति के लॉन्ग-टर्म परिणाम” की मिसाल है।
भारतीय अर्थव्यवस्था और स्टॉक मार्केट के लिए आगे का समय चुनौतीपूर्ण रहेगा।
RBI के लिए अब कोई आसान रास्ता नहीं बचा है।